
बदले हुए रिश्तों और पारिवारिक दवाब के बीच कई बेटियां अपनी पैतृक संपत्ति से वंचित हो जाती हैं, सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपनी मर्जी की शादी की, वह भी दूसरी जाति में। लेकिन गुजरात हाईकोर्ट के ताज़ा फैसले ने इस धारणा को चुनौती दी है। अब सवाल उठता है कि क्या दूसरी जाति में शादी करने से बेटी का पिता की संपत्ति में हक़ खत्म हो जाता है, या कानून इसके अलग मायने रखता है? आइए जानें पूरी स्थिति।
गुजरात हाईकोर्ट का हालिया फैसला उन हजारों बेटियों के लिए नई उम्मीद की किरण बनकर उभरा है, जिन्हें शादी के बाद परिवार या भाई यह कहकर पैतृक संपत्ति से अलग कर देते हैं कि अब उनका घर बदल चुका है। यह मामला सिर्फ एक महिला की कानूनी लड़ाई नहीं था, बल्कि उन सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता था जो सालों से मौन रूप में अन्याय झेलती रही हैं। हाईकोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि बेटी का पैतृक संपत्ति में अधिकार न तो शादी करने, न जाति बदलने, और न ही परिवार द्वारा रिकॉर्ड से नाम हटाने से खत्म होता है। याचिकाकर्ता महिला के मामले में, शादी के बाद उसके भाइयों ने उसे न केवल परिवार से अलग कर दिया था, बल्कि जमीन के रिकॉर्ड से उसका नाम भी हटा दिया था। दीवानी अदालत ने परिवार का पक्ष माना, लेकिन हाईकोर्ट ने इसे रद्द करते हुए कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 बेटी को सह-उत्तराधिकारी बनाती है, और यह अधिकार किसी पारिवारिक विवाद या सामाजिक भेदभाव से प्रभावित नहीं हो सकता। अदालत ने अपने आदेश में यह भी स्पष्ट किया कि भले ही कानून में संशोधन 2005 में हुआ हो, पर इसका मूल आधार 1956 से ही स्थापित है कि बेटी जन्मसिद्ध रूप से पैतृक संपत्ति की हक़दार है। परिवार की मान्यता कि संपत्ति सिर्फ बेटों की है, कानूनन निराधार है।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि बेटी का पैतृक संपत्ति में हक़ केवल दो परिस्थितियों में समाप्त हो सकता है। या तो वह स्वयं लिखित रूप में अपना अधिकार छोड़ दे, या अदालत इसका स्पष्ट आदेश जारी करे। किसी भी अन्य कारण से, चाहे वह परिवार का दबाव हो या जाति आधारित विवाह, बेटी को विरासत से बाहर करना न तो वैध है और न ही मान्य। इस फैसले ने एक मजबूत संदेश दिया है कि कानून, परंपरा और जाति से ऊपर है, और संपत्ति का अधिकार बेटी को जन्म से ही हासिल है। जबकि शादी या सामाजिक रीति-रिवाजों से उसका हक समाप्त नहीं होता।