
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में एक ऐतिहासिक बदलाव देखने को मिला, जहां इस बार विधानसभा में कोई भी निर्दलीय विधायक नहीं जीत सका। यह स्थिति तब आई है, जब कभी बिहार विधानसभा में 33 निर्दलीय विधायक पहुंचते थे। चुनावों में तीसरी ताकत की भूमिका अब खत्म होती नजर आ रही है और मुकाबला पूरी तरह एनडीए और महागठबंधन के बीच केंद्रित हो गया है।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 कई मायनों में ऐतिहासिक साबित हुआ। सबसे बड़ी बात यह रही कि पहली बार राज्य विधानसभा में एक भी निर्दलीय विधायक ने जीत हासिल नहीं की। यह बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव है, क्योंकि पूर्व में निर्दलीय विधायकों का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। 1967 में तो इनकी संख्या 33 तक पहुंच गई थी, और 1985 में भी 29 निर्दलीय विधायकों ने विधानसभा में अपनी जगह बनाई थी। लेकिन अब 21वीं सदी में इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है और अब यह पूरी तरह से शून्य पर पहुंच गई है।
इस चुनाव में एनडीए ने शानदार प्रदर्शन किया और 2010 के अपने रिकॉर्ड से केवल 5 सीटें पीछे रहा। 2010 में बीजेपी और जेडीयू ने अकेले 206 सीटें जीती थीं। हालांकि, इस बार एनडीए का वोट प्रतिशत और सीटें दोनों बढ़ी हैं, जबकि महागठबंधन के वोट प्रतिशत में वृद्धि के बावजूद उसकी सीटें घट गई हैं। इस बदलाव को देखते हुए यह साफ हो गया कि अब बिहार में चुनावी मुकाबला दो ध्रुवीय हो चुका है, जहां एनडीए और महागठबंधन के बीच सीधा संघर्ष है।
निर्दलीय विधायकों के प्रभाव का असर अब खत्म हो चुका है। 2000 में तीसरी ताकत का वोट प्रतिशत 36.8% था, जो 2005 में 49.4% तक पहुंच गया था। लेकिन 2025 में यह घटकर केवल 15.5% रह गया, जो 2020 के मुकाबले 10% की गिरावट है। डेटा विश्लेषकों के अनुसार, तीसरी ताकत के वोट में आई गिरावट ने सीधे एनडीए को फायदा पहुंचाया है। 2020 में महागठबंधन को 37.2% वोट मिले थे, जो 2025 में बढ़कर 37.9% हो गए, लेकिन तीसरी ताकत के लगभग 10% वोट एनडीए की तरफ शिफ्ट हो गए, जिससे एनडीए को निर्णायक बढ़त मिली।
महागठबंधन की हार का एक कारण बागियों का असर भी रहा। कई सीटों पर बागी उम्मीदवारों की वजह से परिणाम प्रभावित हुए। परिहार सीट इसका बड़ा उदाहरण है, जहां राजद की बागी उम्मीदवार रितु जायसवाल को सबसे अधिक वोट मिले। रितु भले ही दूसरे स्थान पर रहीं, लेकिन उनकी वजह से राजद तीसरे स्थान पर खिसक गया।
चुनाव परिणामों से यह साफ हो गया है कि अब बिहार में मतदाता स्थानीय प्रभाव वाले निर्दलीय या छोटे दलों की बजाय स्थिर सरकार और बड़े गठबंधनों पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। यह बदलाव बिहार की राजनीति में आने वाले वर्षों के लिए बड़ा संकेत है कि राज्य की राजनीति अब केवल दो प्रमुख गठबंधनों के इर्द-गिर्द घूमेगी।