बिहार चुनाव 2025: नीतीश कुमार NDA का चेहरा, पर तेजस्वी पर कांग्रेस की ‘ना’ क्यों?
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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मियां तेज होते ही राज्य के राजनीतिक गलियारों और चौपालों पर दो बड़े सवाल गूंज रहे हैं: NDA खेमा 74 वर्षीय नीतीश कुमार को ही क्यों चेहरा बनाए रखना चाहता है, और दूसरा, महागठबंधन का महत्वपूर्ण घटक कांग्रेस, तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा क्यों नहीं स्वीकार कर रही है? इन दोनों सवालों के जवाब बिहार के गहरे सामाजिक और जातीय समीकरणों, साथ ही पिछले चुनावी पैटर्न में छिपे हुए हैं।
NDA के लिए क्यों अनिवार्य हैं नीतीश कुमार?
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बिहार में अपने दम पर बड़ा जोखिम लेने से बचती दिख रही है। यह वह बीजेपी है जिसने मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में नए नेतृत्व को मौका दिया, लेकिन बिहार में वह अपने पुराने सहयोगी नीतीश कुमार पर ही भरोसा कर रही है।
इसकी मुख्य वजह 2020 के विधानसभा चुनाव परिणामों और बिहार के जातीय गणित में निहित है। बीजेपी ने पिछले चुनाव में 74 सीटें जीतकर दूसरा सबसे बड़ा दल बनने का गौरव हासिल किया। हालांकि, इस जीत का बड़ा आधार पार्टी का पारंपरिक सवर्ण (फॉरवर्ड) वोटबैंक रहा है, जो बिहार की आबादी का लगभग 9-10% है।
आंकड़ों पर गौर करें: बीजेपी के 74 विधायकों में से लगभग 40% (33 विधायक) उच्च जाति से आते हैं। बिहार जैसे जाति आधारित राजनीति वाले राज्य में, बीजेपी इस बड़े सवर्ण प्रतिनिधित्व के बावजूद किसी भी ऊंची जाति के नेता को राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने का जोखिम नहीं उठा सकती। क्योंकि ऐसा करना गैर-यादव ओबीसी और अति-पिछड़ा वर्ग के वोटबैंक को दूर कर सकता है।
ऐसे में, बीजेपी के सामने ओबीसी नेता को आगे करने की चुनौती है। यादव समाज का बड़ा हिस्सा आज भी लालू परिवार के साथ मजबूती से खड़ा है, और नित्यानंद राय जैसे यादव चेहरे को आगे करने का प्रयोग भी सफल नहीं रहा है। इसलिए, गैर-यादव ओबीसी और राजनीतिक रूप से ‘परीक्षित’ चेहरा सिर्फ नीतीश कुमार ही बचते हैं।
नीतीश कुमार की सबसे बड़ी ताकत है उनका ‘जातियों से ऊपर उठा हुआ’ अपना निजी वोटबैंक। इसमें मुख्य रूप से तमाम जातियों की महिलाएं (जिन्हें शराबबंदी और पंचायती राज में आरक्षण जैसे फैसलों से जोड़ा गया है), साथ ही दलितों और अति-पिछड़ों में मौजूद लाभार्थी वर्ग शामिल है। यह समूह किसी भी सूरत में 10% के आसपास का वोटबैंक प्रदान करता है, जो NDA की जीत के लिए निर्णायक साबित होता है। इसलिए, नीतीश कुमार NDA के लिए मजबूरी नहीं, बल्कि जीत की गारंटी हैं।
तेजस्वी यादव पर कांग्रेस की ‘खामोशी’ के मायने
महागठबंधन खेमे में कांग्रेस का तेजस्वी यादव को खुलकर सीएम उम्मीदवार स्वीकार न करना भी एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) भले ही पिछले 20 सालों से सत्ता से बाहर है, पर मुस्लिम और यादव वोटबैंक का मजबूत आधार (MY समीकरण) उसके पास बरकरार है।
हालांकि, RJD यह भली-भांति जानती है कि सिर्फ MY समीकरण के दम पर पूर्ण बहुमत हासिल करना असंभव है। तेजस्वी यादव ने अपने तीन पिछले चुनावों (2019, 2020, 2024) में BAAP (बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी, पुअर) और A टू Z (सभी जातियों) जैसे नारों के माध्यम से अपने वोटबेस का विस्तार करने की कोशिश की, लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस की यह चुप्पी महज ‘टाल-मटोल’ नहीं है, बल्कि एक गहरी रणनीति है।
रणनीति का आधार:
सवर्ण वोटरों को भ्रमित रखना: यदि कांग्रेस भी तेजस्वी यादव को तुरंत मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर देती है, तो इसका स्पष्ट संदेश होगा कि गठबंधन का मुख्य एजेंडा लालू प्रसाद यादव की पुरानी राजनीति की वापसी है। इससे महागठबंधन से दूर रहा सवर्ण वोटबैंक पूरी तरह से छिटक कर NDA के पाले में जा सकता है।
भ्रष्टाचार के मुद्दे से बचाव: तेजस्वी यादव के नाम पर भ्रष्टाचार और जंगलराज के पुराने मुद्दों को उठाकर NDA के लिए हमला करना आसान हो जाएगा। कांग्रेस तेजस्वी के नाम पर ‘टाल-मटोल’ कर के इस हमले की धार को कुंद करना चाहती है।
फारवर्ड वोट बैंक में सेंधमारी: कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि उसके बड़े राष्ट्रीय नेताओं (जैसे राहुल गांधी) की उपस्थिति और सीएम चेहरे पर स्पष्ट सहमति न देने की रणनीति से, फारवर्ड (अगड़े) समाज का कुछ प्रतिशत वोट (जो पारंपरिक रूप से बीजेपी को जाता है) महागठबंधन की झोली में आ सकता है।
कुल मिलाकर, दोनों खेमों की रणनीतियां बिहार के जातीय और सामाजिक समीकरणों को साधने की कोशिश हैं। NDA की जीत नीतीश कुमार के गैर-यादव ओबीसी और महिला वोट पर निर्भर है, तो वहीं महागठबंधन की सफलता तेजस्वी यादव के MY आधार में गैर-यादव/गैर-मुस्लिम वोट को जोड़ने की कांग्रेस की रणनीति पर टिकी है।