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केवल 9 धूर ज़मीन, बस 54 साल, तीन पीढ़ियाँ और 10 बीघा की क़ुर्बानी में मिला न्याय

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केवल 9 धूर ज़मीन, बस 54 साल, तीन पीढ़ियाँ और 10 बीघा की क़ुर्बानी में मिला न्याय

बिहार के बेगूसराय जिले से एक ऐसा मामला सामने आया है जो भारतीय न्याय प्रणाली की जमीनी हकीकत को उजागर करता है। यह मामला एक छोटे से भूमि विवाद का है, जो पूरे 54 वर्षों तक अदालत की गलियों में भटकता रहा। विवाद की शुरुआत महज 9 धूर जमीन (लगभग 3600 वर्ग फीट) से हुई थी, लेकिन इस विवाद को सुलझाने में दोनों पक्षों की 10 बीघा से अधिक भूमि बिक गई, तीन पीढ़ियाँ खत्म हो गईं, और कई वकील व जज सेवानिवृत्त या दिवंगत हो गए।

यह मामला 1971 में शुरू हुआ था। वादी जगदीश यादव, अपने नाना की जमीन पर बसे हुए थे। इसी जमीन पर उनके नाना के हिस्सेदार जहू यादव ने एक झोपड़ी बनाने की कोशिश की। जब जगदीश यादव ने इसका विरोध किया, तो दोनों पक्षों के बीच तीखी नोकझोंक हुई और बात सीधे अदालत तक जा पहुंची। बेगूसराय अनुमंडल कोर्ट में केस नंबर 83/1971 के तहत मामला दर्ज हुआ। तब से लेकर आज तक यह मामला अदालत में खिंचता रहा।

इस मुकदमे की कानूनी यात्रा बेहद लंबी और जटिल रही। प्रारंभ में इस विवाद में धारा 144, 145 और 88 लागू की गईं। वर्ष 1979 में अदालत ने फैसला वादी जगदीश यादव के पक्ष में सुनाया, लेकिन अगले ही वर्ष यानी 1980 में प्रतिवादी जहू यादव ने टाइटल सूट अपील (1/80) दाखिल कर दी, जिससे मामला और भी लंबा खिंच गया। इस दौरान जगदीश यादव को मुकदमा लड़ने के लिए अपनी 5 बीघा जमीन बेचनी पड़ी, वहीं जहू यादव ने भी इस विवाद के चलते लगभग 4.5 बीघा जमीन गंवा दी। मुकदमे की अवधि इतनी लंबी हो गई कि कई न्यायाधीश इस केस की सुनवाई करते-करते रिटायर हो गए और कुछ अधिवक्ताओं का भी देहांत हो गया। यह केस एक मिसाल बन गया कि कैसे एक मामूली ज़मीन विवाद दशकों तक न्याय प्रणाली में उलझा रह सकता है।

1997 में जगदीश यादव की मृत्यु हो गई। इसके दो साल बाद जहू यादव का भी निधन हो गया। जगदीश के बेटे मुंशी यादव ने केस की जिम्मेदारी संभाली लेकिन 2010 में उनकी भी मौत हो गई। उसके बाद यह लड़ाई अब पोते – मनटुन यादव, रामभजन यादव और रंजीत यादव तक पहुंच गई। दूसरी ओर जहू यादव के बेटे भी कोर्ट में तारीखों की दौड़ में लगे रहे। कोई समझौता नहीं हुआ, और तारीख पर तारीख पड़ती रही।

जहू यादव का दावा था कि जगदीश यादव के नाना ने जमीन 180 रुपए में मौखिक रूप से उन्हें बेच दी थी। लेकिन कानून के मुताबिक उस समय 100 रुपए से अधिक की भूमि मौखिक रूप से बेचना मान्य नहीं था, और इसी वजह से मामला अटका रहा। 24 मई 2025 को बेगूसराय कोर्ट ने जगदीश यादव के उत्तराधिकारियों के पक्ष में फैसला सुनाया। यह खबर पूरे इलाके में चर्चा का विषय बन गई। लोगों ने कहा कि भले ही देर हो गई हो, लेकिन न्याय मिला। इसके साथ ही कोर्ट में जनता का विश्वास भी और मजबूत हुआ।

जिस 9 धूर जमीन की कीमत 1971 में 180 रुपए थी, वह अब करीब ढाई लाख रुपए की हो चुकी है। लेकिन इस विवाद के चक्कर में दोनों परिवारों की 10 बीघा से अधिक जमीन, तीन पीढ़ियों का जीवन, और लाखों रुपए की कानूनी फीस बर्बाद हो चुकी है। यह मामला न्यायिक व्यवस्था, कानूनी प्रक्रियाओं की धीमी गति और ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी का जीवंत उदाहरण है। यह सिखाता है कि यदि वक्त रहते विवाद का समाधान कर लिया जाए, तो ना तो जीवन बर्बाद होता है और ना ही संपत्ति।

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