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सरकार कोई भी बने, मोकामा में राज हमेशा बाहुबलियों का ही क्यों रहता है?

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सरकार कोई भी बने, मोकामा में राज हमेशा बाहुबलियों का ही क्यों रहता है?…

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की धमक अब जोर पकड़ रही है। पटना जिले की चर्चित मोकामा सीट पर सबकी निगाहें टिकी हैं। यहां ‘छोटे सरकार’ के नाम से मशहूर पूर्व विधायक अनंत सिंह का लंबे समय से दबदबा रहा है, लेकिन इस बार उनकी सीधी टक्कर सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा देवी से है। जेडीयू से अनंत सिंह और आरजेडी से वीणा देवी के बीच यह मुकाबला न सिर्फ दो बाहुबलियों की विरासत की जंग है, बल्कि बिहार की राजनीति की दिशा तय करने वाली घड़ी भी साबित हो सकता है। मोकामा जहां बाहुबली, जातीय समीकरण और पुरानी दुश्मनी मिलकर सत्ता का संतुलन तय करने जा रही है। 2020 में राजद (RJD) के टिकट पर जीते अनंत सिंह (‘छोटे सरकार’) इस बार जदयू (JDU) के उम्मीदवार हैं, जबकि उनके पुराने प्रतिद्वंद्वी सूरजभान सिंह (‘डाडा’) की पत्नी वीणा देवी RJD के टिकट पर मैदान में हैं। नाम वीणा देवी का है, लेकिन असली जंग अनंत सिंह बनाम सूरजभान सिंह की है।

दरअसल, मोकामा सीट की राजनीति बिहार की उन चुनिंदा विधानसभा सीटों में गिनी जाती है, जहां बाहुबल, जातीय समीकरण और स्थानीय वफादारी, सब कुछ मिलकर चुनावी नतीजा तय करते हैं। यहां विकास के मुद्दे से ज्यादा असर व्यक्ति विशेष की पकड़ का होता है। तीन दशक से ज्यादा समय से मोकामा में चुनावी मुकाबले का मतलब रहा है। वहीं, 1990 के दशक में दिलीप सिंह ने इस परंपरा की नींव रखी थी। इसके बाद सूरजभान सिंह और फिर अनंत सिंह ने इस सीट को अपनी ताकत से परिभाषित किया। दिलचस्प बात यह है कि हर दौर में मोकामा की राजनीति सत्ता में बैठे मुख्यमंत्री से ज्यादा इन बाहुबलियों के इर्द-गिर्द घूमती रही।

बाहुबली परिवारों का बदलता समीकरण:
2000 का चुनाव मोकामा के इतिहास का टर्निंग पॉइंट माना जाता है, जब सूरजभान सिंह ने दिलीप सिंह को हराकर यह साबित कर दिया कि यहां जनता वोट विचारधारा से नहीं, बल्कि स्थानीय ताकत से तय करती है। इसके बाद जब 2005 में अनंत सिंह मैदान में उतरे, तो उन्होंने पूरे इलाके में “छोटे सरकार” की छवि बना ली। सूरजभान के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी वीणा देवी राजनीति में उतरीं और मुंगेर से सांसद बनीं। अब 2025 के विधानसभा चुनाव में फिर वही पुराना मुकाबला लौट आया है,जहां अनंत सिंह और सूरजभान परिवार आमने-सामने हैं।

सत्ता बदली, पर ताकत वहीं:
नीतीश कुमार हों या तेजस्वी यादव, सरकारें बदलती रहीं लेकिन मोकामा की राजनीतिक सच्चाई वही रही कि यहां पावर हमेशा बाहुबलियों के पास रही। साथ ही मोकामा का यह इतिहास न केवल बिहार की राजनीति की जटिलता को दिखाता है, बल्कि यह भी बताता है कि लोकतंत्र में कई बार “लोकप्रियता” का चेहरा भी ताकत और प्रभाव से तय होता है, न कि सिर्फ वोट से। मोकामा की सियासत हमेशा से ताकत, पहचान और वफादारी के मेल की कहानी रही है। हर दौर में चेहरा बदलता है, लेकिन सत्ता की चाबी उसी के पास रहती है जिसके पास ज़मीन से जुड़ाव और दबदबा दोनों हों। इतना तय है कि नतीजा चाहे जो भी हो, मोकामा की राजनीति में बाहुबल की परंपरा अभी खत्म नहीं हुई है।

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