
दुलारचंद यादव की हत्या ने एक बार फिर मोकामा की सियासत में उबाल ला दिया है। पटना से करीब 100 किलोमीटर दूर यह इलाका बाहुबल और जातीय समीकरणों के लिए हमेशा चर्चा में रहा है। गुरुवार को चुनाव प्रचार के दौरान हुई गोलीबारी ने न सिर्फ चुनावी माहौल को गर्मा दिया, बल्कि एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया कि आखिर मोकामा की राजनीति में हिंसा और वर्चस्व की जंग कब खत्म होगी। अब सबकी निगाहें इस पर टिकी हैं कि जहां हिंदू और मुस्लिम आबादी का अनुपात लगभग बराबर है, वहां यह ताजा वारदात वोट बैंक पर कितना असर डालेगी।
मोकामा नगर परिषद के ये आंकड़े सिर्फ जनगणना का रिकॉर्ड नहीं, बल्कि इस इलाके की सामाजिक और राजनीतिक संरचना की झलक भी पेश करते हैं। गंगा किनारे बसा यह ऐतिहासिक शहर लंबे समय से बाहुबल, जातीय समीकरण और स्थानीय प्रभाव के लिए जाना जाता रहा है। कुल 60,678 की आबादी वाले मोकामा में महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले काफी कम है- जहां 1000 पुरुषों पर सिर्फ 880 महिलाएं हैं। बच्चों में यह अंतर और भी ज्यादा बढ़ जाता है, क्योंकि 0 से 6 वर्ष के आयु वर्ग में चाइल्ड सेक्स रेशियो मात्र 869 है। यानी यहां बेटियों की संख्या अब भी लड़कों के मुकाबले कम है। हालांकि, धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो मोकामा एक हिंदू बहुल इलाका है। यहां कुल 94.34% आबादी हिंदू धर्म से जुड़ी है, जबकि मुस्लिम आबादी लगभग 5.11% है। शहर के अधिकांश वार्डों में यादव, भूमिहार और कुर्मी समुदायों की पकड़ मजबूत मानी जाती है, जबकि मुस्लिम आबादी कुछ चुनिंदा मोहल्लों तक सीमित है। यही वजह है कि मोकामा की सियासत हमेशा स्थानीय नेतृत्व, जातीय एकजुटता और बाहुबल के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लेकिन विकास के मुद्दे यहां अक्सर पीछे छूट जाते हैं।
मोकामा की तस्वीर साफ दिखाती है कि यह शहर सिर्फ बाहुबल और राजनीति का गढ़ नहीं, बल्कि सामाजिक असमानताओं और उम्मीदों का भी आईना है। यहां शिक्षा, लैंगिक संतुलन और अवसरों की खाई अब भी बनी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि मोकामा आगे तो बढ़ रहा है, लेकिन बराबरी की रफ्तार से नहीं बढ़ रहा है। आने वाले समय में अगर यह शहर अपनी पहचान सिर्फ बाहुबल से हटाकर शिक्षा और विकास की दिशा में मजबूत करता है, तो मोकामा वाकई बिहार की बदलती राजनीति और समाज का उदाहरण बन सकता है, जहां ‘सत्ता’ की नहीं, ‘साक्षरता’ की जीत होगी।