
बिहार की सियासत में ‘दोस्ती और अदावत’ की दशकों पुरानी कहानी एक बार फिर कड़वाहट के साथ सुर्खियों में है। दिवंगत समाजवादी नेता शरद यादव के बेटे शांतनु यादव को मधेपुरा से टिकट न मिलने के बाद उन्होंने और उनकी बहन सुहासिनी यादव ने राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और लालू परिवार पर “विश्वासघात” और “राजनीतिक षड्यंत्र” का सीधा आरोप लगाया है। इस घटनाक्रम ने RJD के भीतर और बाहर, दोनों जगह हड़कंप मचा दिया है।
बेटे-बेटी का RJD पर तीखा हमला
शांतनु यादव को मधेपुरा से टिकट न दिए जाने की प्रतिक्रिया में सुहासिनी यादव ने शुक्रवार को एक्स हैंडल पर एक भावनात्मक और तीखा पोस्ट किया। उन्होंने लिखा, “जो अपने खून के नहीं हुए, वो दूसरों के क्या सगे होंगे। जो अपने ही परिवार के वफादार नहीं, वो किसी और के लिए कैसे भरोसेमंद हो सकते हैं? ये विश्वासघात की पराकाष्ठा और उनकी असहजता का उत्कृष्ट उदाहरण है।” यह पोस्ट सीधे तौर पर लालू परिवार के वंशवादी फैसलों पर सवाल उठाता है।
इसके तुरंत बाद, शांतनु यादव ने अपनी निराशा व्यक्त करते हुए लिखा, “मेरे खिलाफ राजनीतिक षड्यंत्र हुआ। समाजवाद की हार हुई। #Madhepura।” लंदन से शिक्षा प्राप्त कर बिहार में समाजवादी राजनीति को मजबूत करने आए शांतनु का दावा है कि उन्हें लालू यादव ने चुनाव की तैयारी के लिए कहा था, लेकिन तेजस्वी यादव के नेतृत्व ने उन्हें निराश किया।
शिवानंद तिवारी ने याद दिलाया 1990 का ‘कर्ज’
इस तल्खी के बीच, RJD के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने एक पोस्ट लिखकर लालू प्रसाद यादव पर शरद यादव के “राजनीतिक कर्ज” की याद दिलाई। उन्होंने कहा कि लालू अगर शांतनु को टिकट दे देते, तो वे शरद यादव का कर्ज उतार सकते थे। सवाल उठता है कि लालू यादव पर शरद यादव का वह कौन सा कर्ज है? इसके लिए हमें 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद के घटनाक्रम में जाना होगा।
जब शरद ने लालू को बनाया था CM
1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल को बहुमत मिलने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए घमासान छिड़ गया था। लोकसभा सांसद लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में शामिल थे, लेकिन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने उनका समर्थन नहीं किया। वी.पी. सिंह एक दलित नेता रामसुंदर दास को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, क्योंकि लालू विधानसभा के सदस्य नहीं थे। वी.पी. सिंह ने अपनी पसंद के नेता को विधायक दल का नेता चुनने में मदद के लिए अजीत सिंह, जॉर्ज फर्नांडिस और सुरेंद्र मोहन को पटना भेजा था।
लेकिन लालू यादव आलाकमान के फैसले मानने के मूड में नहीं थे। उन्होंने विधायक दल का नेता चुनने के लिए चुनाव कराने की मांग की। यहीं शरद यादव और मुलायम सिंह यादव उनके समर्थन में खड़े हुए, जिन्हें देवीलाल ने लालू के पक्ष में प्रचार करने के लिए पटना भेजा था। लालू की चतुराई और शरद-देवीलाल के समर्थन के चलते विधायक दल के चुनाव में वोटों का विभाजन हुआ। रामसुंदर दास, सवर्णों का प्रतिनिधित्व कर रहे रघुनाथ झा (चंद्रशेखर के उम्मीदवार) और लालू प्रसाद यादव के बीच हुए मुकाबले में, लालू मामूली अंतर से जीत गए।
इसके बावजूद, अजीत सिंह ने लालू को सीएम बनने से रोकने के लिए बिहार के राज्यपाल मोहम्मद यूनुस सलीम से मिलकर उन्हें दिल्ली बुला लिया। गुस्साए लालू ने गवर्नर को रोकने के लिए पटना एयरपोर्ट तक पीछा किया। अंततः, देवीलाल ने हस्तक्षेप किया और गवर्नर को वापस पटना लौटने को कहा।
इस पूरे घटनाक्रम के बाद, 10 मार्च 1990 को गांधी मैदान में लालू यादव की ताजपोशी हुई। शिवानंद तिवारी इसी घटना का हवाला देते हुए लालू पर शरद यादव के उस ‘राजनीतिक ऋण’ की याद दिला रहे हैं, जिसकी बदौलत लालू बिहार की सत्ता के शिखर पर पहुंचे थे। अब शांतनु को टिकट न मिलना उस दशकों पुरानी दोस्ती और कर्ज को ‘विश्वासघात’ के तौर पर सामने ला रहा है।
