
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में दानापुर विधानसभा सीट की चुनावी लड़ाई अचानक बेहद रोचक और हाई-वोल्टेज हो गई है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पूर्व विधायक आशा सिन्हा ने टिकट नहीं मिलने से नाराज होकर पार्टी के आश्वासन को दरकिनार करते हुए निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया है। उनके इस बागी कदम से भाजपा खेमे में खलबली मच गई है, क्योंकि वह सीधे तौर पर पार्टी के आधिकारिक प्रत्याशी और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव को टक्कर देंगी।
एक दिन पहले तक आशा सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से आश्वासन दिया था कि वह पार्टी के आदर्शों का सम्मान करेंगी और रामकृपाल यादव के खिलाफ चुनाव मैदान में नहीं उतरेंगी। उन्होंने सोशल मीडिया पर यह भी कहा था कि वह मैदान में नहीं होंगी, लेकिन पार्टी की नीति और जनता की सेवा के मिशन के साथ खड़ी रहेंगी। हालांकि, इस घोषणा के अगले ही दिन, उन्होंने अप्रत्याशित रूप से नामांकन स्थल पर पहुंचकर सबको चौंका दिया।
राजनीतिक गलियारों में यह समझा जा रहा है कि आशा सिन्हा ने जन सुराज पार्टी के एक प्रत्याशी के अचानक गायब होने के बाद उनकी जगह नामांकन किया है। उनका यह कदम दानापुर में भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है, क्योंकि उनका व्यक्तिगत जनाधार और चार बार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का अनुभव पार्टी के वोट बैंक को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा।
आशा सिन्हा का राजनीतिक इतिहास और ‘बगावत’ की वजह
आशा सिन्हा का दानापुर सीट से गहरा नाता रहा है। वह इस सीट से चार बार प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। उनके पति और भाजपा नेता सत्यनारायण सिन्हा की 2003 में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इस दुखद घटना के बाद, आशा सिन्हा ने 2005 में राजनीति में कदम रखा और उसी वर्ष हुए दोनों विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की। इसके बाद, 2010 और 2015 के चुनावों में भी उन्होंने जीत का परचम लहराया और दानापुर की विधायक चुनी गईं।
हालांकि, 2020 के पिछले चुनाव में उन्हें राजद के रीतलाल राय (जो उनके पति के हत्यारोपित भी थे) से हार का सामना करना पड़ा था। इस बार भाजपा ने उन्हें टिकट न देकर पूर्व केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव पर भरोसा जताया। अब जबकि राजद ने एक बार फिर रीतलाल राय को अपना उम्मीदवार बनाया है, आशा सिन्हा की निर्दलीय एंट्री ने दानापुर की त्रिकोणीय लड़ाई को बेहद कड़ा बना दिया है, जिसमें भाजपा का समीकरण बुरी तरह बिगड़ सकता है।
आशा सिन्हा की ‘बगावत’ से स्पष्ट है कि यह केवल एक राजनीतिक फैसला नहीं है, बल्कि एक अनुभवी नेता द्वारा टिकट से वंचित किए जाने पर उत्पन्न हुई व्यक्तिगत नाराजगी का परिणाम है। भाजपा को अब इस बागी तेवर से निपटने के लिए एक नई रणनीति बनानी होगी, ताकि रामकृपाल यादव की राह आसान हो सके।